रासायनिक कृषि से थकी भूमि को "भू पुन:श्चेतन कृषि" ने दी नई जानसांदर्भिक फोटो।

भारतीय वैदिक कृषि विधि पर अमरीका समेत कई देशों ने जताया भरोसा

हुब्बल्ली. रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग से थक चुकी कृषि भूमि अब केवल जैविक खेती से भी संतोषजनक सुधार नहीं पा रही थी। इसी परिदृश्य में कृषि विश्वविद्यालय, धारवाड़ के जैविक कृषि विभाग ने विकसित की ‘भू पुन:श्चेतन कृषि’ विधि, जिसे अमरीका समेत कई देशों ने सराहा है।

इस विधि में खेतों में रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक या कीटनाशक सिंचाई का उपयोग नहीं किया जाता। बुआई किए बीज से प्राकृतिक तरीके से फसल उगाई जाती है। पांच वर्षों तक चलाए गए प्रयोग में जंगल की मिट्टी में मौजूद सूक्ष्म जीवाणुओं को खेत में लाकर मिट्टी की उर्वरता और प्राकृतिक शक्ति को पुन:स्थापित किया गया, और यह प्रयास सफल रहा।

भू पुन:श्चेतन कृषि क्या है?

यह विधि उन भूमि, जल और कृषि वातावरण की मरम्मत करने की तकनीक है, जिन्हें दशकों तक रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों के कारण क्षतिग्रस्त किया गया। इसमें किसी भी तरह के रासायनिक उपयोग के बिना फसल उगाई जाती है, और साथ ही कृषि के लिए अनुकूल प्राकृतिक वातावरण का निर्माण भी किया जाता है।

वैदिक कृषि की आधुनिक पुष्टि

भारत में वेद काल से प्रचलित शुद्ध और पारंपरिक कृषि इसी विधि का मूल आधार है। इसमें खाद्य फसल के साथ-साथ जड़ी-बूटियां, पेड़-पौधे, जलचर और पशु-पक्षियों के लिए भी स्थान होता है। यह विधि रासायनिक कृषि से क्षतिग्रस्त भूमि को पुन:प्राकृतिक रूप से उर्वर बनाने का साधन है।

अमरीका के रोडेल विश्वविद्यालय के साथ किया समझौता

अमरीका के रोडेल विश्वविद्यालय ने इस विधि में धारवाड़ कृषि विश्वविद्यालय के जैविक कृषि विभाग के साथ समझौता किया है। नेपाल, चीन, मलावी और म्यांमार के कृषि वैज्ञानिक भी इस तकनीक को अपनाने के लिए तैयार हैं। अमरीका का मानना है कि बिना रासायनिक उपयोग के आठ वर्षों तक कृषि करना आवश्यक है; अन्यथा भविष्य की फसलें असफल हो जाएंगी।

देशी कृषि तकनीक का शोध किया

जैविक खेती पर्याप्त नहीं है; सतत और भू पुन:श्चेतन कृषि भविष्य में अनिवार्य होगी। इसी सोच के साथ विश्वविद्यालय ने देशी कृषि तकनीक का शोध किया है।
डॉ. पी.एल. पाटील, कुलपति, कृषि विश्वविद्यालय

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