कृष्णा नदी में गर्मियों में पानी कम होने से बढ जाता है खतरा
हुब्बल्ली. बेलगावी और बागलकोट जिलों में गर्मियों में मानव-मगरमच्छ के बीच संघर्ष अधिक होता है। कृष्णा नदी में पानी कम होते ही भोजन की तलाश में किनारे पर आने वाले मगरमच्छों के साथ वहां के लोग क्या करते हैं?
नदी किनारे मगरमच्छ के आने की खबर फैलते ही बड़ी संख्या में भीड़ जुट जाती है।
डर के कारण बाहर आए मगरमच्छों को पत्थरों, हथौड़ों या ट्रैक्टरों से मारने के उदाहरण हैं परन्तु अब स्थिति में सुधार हुआ है। मगरमच्छ के नजर आते ही लोग उसे रस्सी से बांध कर वन विभाग या दमकल थाने को सूचित करते हैं।
ऐसी तस्वीरें अक्सर गर्मियों के दौरान बेलगावी और बागलकोट जिलों में कृष्णा नदी के तटों पर देखी जा सकती हैं। बाढ़ हो या फिर सूखा हो; चाहे कुछ भी हो, मगरमच्छों का नदी से बाहर आना पक्का है।
चिक्कोडी तालुक के सदलगा के पास हालही में दूधगंगा (कृष्णा की एक सहायक नदी) नदी में स्नान करने गए एक किसान को मगरमच्छ ने काटा और मार दिया। फरवरी से अप्रेल तक लोगों ने ही चार मगरमच्छों को पकडक़र नदी में छोड़ा है।
मगरमच्छ अधिक
कृष्णा नदी महाराष्ट्र के महाबलेश्वर से निकलती है और चिक्कोडी के जरिए कर्नाटक में प्रवेश करती है। नदी के उद्गम स्थल वाले घाट क्षेत्र में मगरमच्छों का प्रजनन अधिक होता है। कृष्णा नदी में बाढ़ आने पर मगरमच्छ के बच्चे बाहर आ जाते हैं। बेलगावी और बागलकोट जिलों में कृष्णा का प्रवाह अधिक है। मगरमच्छों के लिए भरपूर आहार होता है। इसके चलते इस क्षेत्र में ही मगरमच्छ अधिक हैं।
मगरमच्छ-मानव संघर्ष क्यों और कैसे?
महाराष्ट्र और कर्नाटक में कृष्णा नदी के किनारे ज्यादातर गन्ना उगाया जाता है। गन्ने की फसल को पानी की बहुत आवश्यकता होती है। विशेषकर गर्मियों में नदी के पानी का अत्यधिक उपयोग किया जाता है। लिफ्ट सिंचाई के जरिए तालाबों को भरा जाता है। गन्ने की फसल के हिसाब से चीनी मिलों की संख्या भी बढ़ी है। बेलगावी जिले में 17 चीनी मिलें हैं जो कृष्णा नदी के पानी पर निर्भर हैं। पीछे जाने पर महाराष्ट्र, आगे जाने पर बागलकोट जिले में भी अधिक चीनी मिलें हैं। चीनी मिलें पूरे वर्ष भारी मात्रा में पानी का उपयोग करती हैं।
भूख से जूझ रहे हैं मगरमच्छ
चीनी मिलों, कृषि भूमि से उत्पन्न होनेवाला मलजल सीधे कृष्णा नदी में गिरता है। यह जलचरों की मृत्यु का भी कारण बनता है। नदी के किनारों पर रेत खनन भी लगातार जारी है। इन सभी कारणों से हर गर्मियों में नदी का जल स्तर कम हो जाता है। जलचर मर जाते हैं। मगरमच्छ भूख से जूझ रहे हैं।
जलचरों के क्षेत्र का अतिक्रमण
पर्यावरणविदों का कहना है कि नदी के किनारे लगभग 200 गांव हैं। गांवों के विस्तार होने से नदी क्षेत्र घट रहे है। गर्मियों में पानी कम होते ही किसान नदी के मैदानों की जुताई करते हैं। यही जलचरों के क्षेत्र का अतिक्रमण है। मगरमच्छ पानी के भीतर होता है, तो वह मछली और केकड़े सहित जलचरों को खाता है। जब यह बाहर निकलता है तो बकरी, भेड़, गाय, बैल, भैंस, कुत्ता, घोड़ा जैसे जानवरों का शिकार करता है।
संघर्ष का कोई अंत नहीं
पूरे विश्व में मानव-वन्यजीव संघर्ष होता रहा है। बाघ, तेंदुआ, हाथी के हमले से बचने के लिए बिजली तार की बाड़, खाई, दीवार निर्माण जैसे उपाय हैं परन्तु मगरमच्छों पर काबू पाने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि मगरमच्छ का कोई विशिष्ट निवास स्थान नहीं होता। यह भोजन के लिए पलायन करता ही रहता है। यहां मगरमच्छ चेतावनी लिखा हुआ एक बोर्ड लगाना ही अब एकमात्र तरीका है।
फरवरी-मार्च में देते हैं अंडे
मगरमच्छ मिलन और अंड़े देने के दौरान ही अक्सर संघर्ष होता है। आम तौर पर, दक्षिण भारतीय मगरमच्छ नवंबर-दिसंबर के मध्य में मिलन क्रिया करते हैं। फरवरी-मार्च में अंडे देते हैं। मगरमच्छ अंड़े देने के लिए नदी तट की रेत और झाडिय़ों की आवश्यकता होती है। मादा मगरमच्छ और इसके बच्चों के लिए आवश्यक नमी और गर्मी दोनों ही इस रेत में मात्र मिलते हैं।
मगरमच्छ प्रजनन कर रहे हैं
तीन दशक पहले कृष्णा नदी गर्मियों में पूरी तरह सूख जाती थी। मगरमच्छ भी मर जाते थे परन्तु अब महाराष्ट्र के बांधों से पानी की आवक जारी है। इसके चलते बेलगावी और बागलकोट जिलों में भी मगरमच्छ प्रजनन कर रहे हैं। एक मगरमच्छ एक बार में 40 से 100 अंडे देता है। इन अंडों को खाने के लिए घोरपड, सांप और पक्षी आते हैं। नर और मादा मगरमच्छ बारी-बारी से अपने अंडों की रखवाली करते हैं। ऐसे समय में नदी के किनारे जो भी जाएगा उसके लिए खतरा होता है।
दशकों से मानव-मगरमच्छ संघर्ष नहीं रुका
विशेषज्ञों का कहना है कि उड़ीसा के केंद्रपार जिले में राष्ट्रीय उद्यान मगरमच्छ उत्पीडऩ का एक ज्वलंत गवाह है। वहां की सरकार ने मगरमच्छों के संरक्षण के लिए मगरमच्छ परियोजना की घोषणा की। एक ही दशक में मगरमच्छों की संख्या बहुत ज़्यादा हो गई परन्तु निवास स्थान मात्र उतना ही रहा। मगरमच्छ एक संकरे आवास को छोडक़र बाहर आ गए और इंसानों पर हमला करने लगे। वहां पर दशकों से मानव-मगरमच्छ संघर्ष नहीं रुका है। मगरमच्छ के इलाके पर अतिक्रमण करते रहेंगे तो कृष्णा नदी किनारे पर भी ऐसी ही स्थिति पैदा हो सकती है।
इंसानों ने किया अतिक्रमण
वन अधिकारी इस बात पर भी चिंता जताते हैं कि यदि मगरमच्छों ने नदी किनारे की इमारतों के लिए अनापत्ति पत्र मांगा तो आधी इमारतें तोडऩी पड़ेंगी। इंसानों ने इस हद तक अतिक्रमण कर लिया है।
नदियों के असली उत्तराधिकारी जलचर
जंगली जानवरों के जीवन में हस्तक्षेप ही उनके बाहर आने का कारण है। दांडेली वन क्षेत्र इसका अच्छा उदाहरण है। 2020 तक मगरमच्छों की ओर से किसी को मारने की कोई घटना नहीं हुई। इन दो दशकों में पर्यटन की आड़ में होम स्टे, होटल और पर्यटन स्थल बनाए गए। भीड़ उमड़ पड़ी। मगरमच्छों की आजीविका प्रभावित हुई। वे बाहर आने लगे। 2022 में दांडेली क्षेत्र में पांच लोग मगरमच्छों का शिकार बने थे। नदियों के असली उत्तराधिकारी जलचर हैं। नदियां सिर्फ इंसानों के लिए नहीं हैं। इस बात का एहसास होने पर ही वन्यजीवों और मनुष्यों के बीच संघर्ष रुकेगा और सह-अस्तित्व संभव है। बस इसे समझने की जरूरत है।
–गिरिधर कुलकर्णी, वन्यजीव संरक्षणवादी
मगरमच्छों का पलायन भी बड़े पैमाने पर हुआ
भोजन की कमी के कारण ही वन्यजीव मानव आवास में आते है। जिस तरह इंसान रोजी-रोटी के लिए रोजगार की तलाश में पलायन करता है, उसी तरह यह भी मगरमच्छों का पलायन है। इस बार सूखे के कारण नदी का जलस्तर काफी गिर गया है। जलचर मर गए हैं। मगरमच्छों का पलायन भी बड़े पैमाने पर हुआ है।
–शिवानंद नायकवाड़ी, उप वन संरक्षण अधिकारी, गोकाक