
चिक्कमगलूरु
मूडिगेरे शहर से कुछ ही मीटर की दूरी पर होयसल वंश के चौथे राजा विष्णुवर्धन की समाधि मिली है।
होयसल वंश का मूल स्थान तालुक का शशकपुर मौजूदा अंगडी है। होयसल के संपूर्ण इतिहास से संबंधित तीन पुस्तकों को प्राप्त करने वाले लिपिकारों ने होयसल राजा विष्णुवर्धन के आखरी दिनों में अनुसंधन किया।
पुस्तक में प्राप्त जानकारी के अनुसार विष्णुवर्धन की मूल राजधानी द्वारसमुद्र होने पर भी (वर्तमान में हलेबीडु कहा जाता है) उसने उत्तर कर्नाटक के बंकापुर को एक और राजधानी बनाई थी। हव्वल्ली शिलालेख तथा स्वतंत्रता सेनानी स्व. माकोनहल्ली एमके दोड्डप्प गौड़ा के लेखों से इसकी पुष्टि होती है।

इतिहासकारों का कहना है कि बंकापुर में रहने के दौरान ही राजा विष्णुवर्धन की सन 1141 में अकाल मृत्यु हुई, इसकी लाश को शशकपुर (अंगडी) या फिर मूल राजधानी द्वारसमुद्र (हलेबीडु) ले जाया गया। वहां राजहाथी पर पार्थिव शरीर को रखकर राज्य कोष के साथ सैकड़ों करीबियों के साथ मूडिगेरे सुंडेकेरे नहर के समीप आने के दौरान तलिगेनाडु के मरियाल पल्ली के बिण्णेगौड़ा तथा भूतेगौडा ने लाश को रोका। इस दौरान राजा की लाश ले जा रहे प्रमुख बोप्पण्णा देव तथा बिण्णेगौड़ा तथा भूतेगौडा के बीच युध्द हुआ, जिसमें भूतेगौड़ा की मृत्यु हुई।
इसी बीच राजहाथी तथा राजकोष को बिण्णेगौड़ा ने लूटा था। इन सबके बीच ही राजा विष्णुवर्धन की लाश को सुंडेकेरे नहर से 500 मीटर की दूरी पर गड्ढा खोदकर दफनाया गया था। इसकी पहचान के लिए तीन फीट ऊंचे चार पत्थरों को खड़ा किया गया था। इसमें हालही के वर्षों में आकाशीय बिजली गिरने के कारण एक पत्थर टूटा है, बकाया तीन पत्थर एल आकार में बचे हैं।
तालुक प्रशासन प्रमुख एमए नागराज तथा अधिकारी संतोष ने हालही में विष्णुवर्धन के मकबरे वाली जमीन का दौरा किया था। मकबरे के बारे में अधिक जानकारी देने के लिए पुरातत्व विभाग को पत्र लिखने का तहसीलदार ने आश्वासन दिया है।
कौन था राजा विष्णुवर्धन
विष्णुवर्धन होयसल वंश का एक वीर और प्रतापी राजा था, जो 1110 ई. में द्वारसमुद्र की राजगद्दी पर आरूढ़ हुआ। इसने 1141 ई. तक राज्य किया और अनेक युद्ध किए तथा अपने राज्य का विस्तार किया। वह नाममात्र के लिए ही चालुक्यों का अधीनस्थ बना था। बाद में उसने अपने राज्य को चालुक्यों की अधीनता से मुक्त कर अन्य राज्यों पर आक्रमण शुरू किए। सुदूर दक्षिण में चोल, पांड्य और मलाबार के क्षेत्र में विष्णुवर्धन ने विजय यात्राएं कीं और अपनी शक्ति को प्रदर्शित किया। तत्कालीन भारतीय इतिहास में उसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रारम्भ में वह जैन मतावलम्बी था, किंतु प्रख्यात वैष्णव आचार्य रामानुज के प्रभाव से वह वैष्णव मतावलम्बी हो गया। मत परिवर्तन के बाद उसने अपना पहले का नाम विहिदेव या विहिव त्याग दिया और विष्णुवर्धन नाम धारण कर लिया। इसमें सन्देह नहीं कि विष्णुवर्धन के शासन काल में होयसल राज्य बहुत शक्तिशाली हो गया था।

विष्णुवर्धन ने वैष्णव धर्म के प्रचार के लिए अनेक भव्य मन्दिरों का निर्माण करवाया था। इन मन्दिरों में से कुछ आज भी बेलूर और हलेबिडु में विद्यमान हैं। इनमें सर्वोत्कृष्ट उदाहरण हलेबिडु होयसलेश्वर मन्दिर का है, यह 160 फुट लम्बा तथा 122 फुट चौड़ा है। इसमें शिखर नहीं मिलता। इसकी दीवारों पर अद्भुत मूर्तियां बनी हुई हैं, जिसमें ग्यारह सज्जा पट्टियां हैं। प्रत्येक पट्टी सात सौ फुट या इससे भी अधिक लम्बी हैं। ये पट्टियां हाथी, सिंह, अश्वारोही, वृक्षलता, पशु-पक्षी आदि विविध अलंकरणों से सुसज्जित हैं। कुछ आलोचकों का विचार है कि यह मन्दिर मानव श्रम और कौशल का सर्वाधिक अनूठा उदाहरण है। 1141 ई. में विष्णवर्धन की मृत्यु हो गई थी।

विष्णुवद्र्धन ने 1117 ई. में बेलूर में चेन्नाकेशव मंदिर का भी निर्माण करवाया था। वह 178 फुट लंबा तथा 156 फुट चौड़ा है। मंदिर के चारों ओर वेष्टिनी है, जिसमें तीन तोरण बने हैं। तोरण-द्वारों पर रामायण तथा महाभारत से लिए गए अनेक सुन्दर दृश्यों का अंकन हुआ है। मंदिर के भीतर भी कई मूर्तियां बनी हुई हैं। इनमें सरस्वती देवी का नृत्य मुद्रा में बना मूर्ति-चित्र सर्वाधिक सुन्दर एवं चित्ताकर्षक है। होयसल मंदिर अपनी निर्माण-शैली, आकार-प्रकार एवं सुदृढता के लिए प्रसिद्ध हैं।